-यज्ञीय ऊर्जा से होता है जीवाणुओं, विषाणुओं का शमन, जीवनी शक्ति का संवर्धन
-ऋषि-मुनियों की यज्ञीय परंपरा और पर्यावरण संवर्धन है जीवन का आधार
बदायंू: प्रखर बाल संस्कारशाला की ओर से ‘‘यज्ञ और पर्यावरण संरक्षण से सूक्ष्म जगत का परिशोधन‘‘ पर कार्यक्रम आयोजित हुआ। गायत्री परिवार केे संजीव कुमार शर्मा ने कहा कि वृक्षों के अंधाधुंध कटान से पर्यावरण प्रदूषित हुआ। ग्लोबल वार्मिंग की समस्या चुनौतिपूर्ण बनी है। अब आक्सीजन की कमी विश्व के लिए खतरा बनी हुई है। प्रकृति के नियमों को मनुष्य से ज्यादा पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं ने माना। प्राकृतिक आपदाओं के संकतों और ऋषि-मुनियों के संयमित जीवन ने पुनः प्रकृति की ओर चलने आह्वान किया। मनुष्य की अनदेखी का नतीजा, प्रकृति की अनमोल धरोहर जीवन की संजीवनी हवा और पानी वर्षों से मोल मिल रहा है। भयाभय प्रदूषण के कारण प्रकृति से बिना मूल्य के सहज और सुलभ उपलब्ध होने वाली आक्सीजन भी अब अच्छी कीमत देने के बाद भी नहीं मिल रही। अगर आक्सीजन मिल भी गई तो आखिर कब तक काम करेगी ? कोरोना महामारी में इसके परिणाम देखने को मिल रहें हैं। देश भर के डाक्टर, सेनाएं और अन्य समाजसेवी संस्थाएं लोगों की जान बचाने में लगी हुई हैं। कोरोना महामारी में सरकार द्वारा जारी नियमों का पालन जरूर करें। प्राचीन और अद्भुत क्षमताओं को पुनः प्राप्त करने के लिए यज्ञीय परंपरा और प्रकृति के अनुशासन को मानना ही होगा। एक स्वस्थ व्यक्ति को श्वांस (आक्सीजन) लेने के लिए 16 बड़े पेड़ होने चाहिए। जबकि 40 से अधिक लोग एक पेड़ पर आक्सीजन लेने के लिए डटे हुए हैं। वृक्षों से बिना मोल आक्सीजन मिलती है। वृक्षों का संरक्षण करना होगा।
उन्होंने कहा कि यज्ञीय ऊर्जा से जीवाणुओं, विषाणुओं का शमन और जीवनी शक्ति का संवर्धन होता है। यज्ञ ही पर्यावरण, सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों के पोषण का मुख्य स्त्रोत भी हैं। नियमित यज्ञ करने से आरोग्य प्राप्त होता है, मानसिक विकृतियां और दुर्बलताएं दूर होती हैं। पर्यावरण का शोधन होता है। नवीन समस्याओं का समाधान यज्ञीय ऊर्जा और पर्यावरण संरक्षण से ही संभव है। ऋषि मुनियों ने यज्ञों को पर्यावरण संरक्षण का केंद्र माना है। ‘‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्यां‘‘ मैं भूमि पुत्र हूँ और यह पृथ्वी मेरी माता है। दिव्य औषधियों के लिए वृक्षों, पर्यावरण के लिए पशु पक्षियों और जीव जन्तुओं को संरक्षित करें। वृक्षों में, वातावरण में विद्यमान विषाक्तता को तत्काल रोकने की अद्भुत क्षमता होती है। हम प्रकृति के सानिध्य, यज्ञीय परंपरा, ऋषि चिंतन, भारतीय संस्कृति और सभ्यता से दूर हो गए। मनुष्य ने अपने आचरण, व्यवहार और कृत्यों से पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और चारों ओर के वातावरण को विषाक्त कर मुसीबतें खड़ी कर ली हैं।
उन्होंने कहा प्राकृतिक आपदाएं, भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट, तूफान, चक्रवात, भूस्खलन के साथ कोरोना जैसी महामारी को भी चुनौती के रूप में खड़ा कर लिया है। वैज्ञानिक दृष्टि से प्रमाणित प्राचीन वैदिक यज्ञोपचार प्रक्रिया ही आज के विकृत पर्यावरण के परिशोधन का एकमात्र साधन है। मंत्रपूरित यज्ञ की सूक्ष्म ऊर्जा तरंगें प्रकृति के समस्त घटकों के भीतर तक पहुँचकर वहां विद्यमान प्रदूषणता और विषाक्ता को मिटा कर प्राणसंचार कर सकती हैं। यज्ञ और पर्यावरण संरक्षण समस्त समस्याओं का समाधान रहा है।
पर्यावरण परिशोधन के लिए विशिष्ट हवन सामग्री-
1.अगर 2.अनंतमूल 3.अपामार्ग 4.आम के सूखे पत्ते 5.आँवला 6.बड़ी इलायची 7.इंद्र जौ 8.बड़ी कटेरी 9.कपूर 10.किशमिश 11. कूठ 12.केशर 13.गिलोय 14.गुग्गुलु 15.गंधक 16.गंधतृण 17.चमेली या चंपापुष्प 18.चैलाई की जड़ 19.चंदन का बुरादा 20.छुआरा 21.जटामासी 22.जायफल 23.जौ 24.तगर 25.तज 26.तालीसपत्र 27.तुलसी 28.तेजपत्र 29.दवना 30.दालचीनी 31.देवदार का बुरादा 32.दूर्वा 33.निर्गुंडी 34.नागरमोथा 35.निशोथ 36.नीम की सूखी पत्ती या छाल 37.नागकेसर 38.नेर सा गुलपिटा की पत्ती 39.प्रियंगु 40.फरहद या परिभद्र 41.बच 42.बला 43.बाकुची 44.बिल्वगिरी 45.ममीरी 46.मरुआ तुलसी 47.मौलश्री 48.मंजीष्ठ 49.राल 50.लाख 51.लोबान 52.लोध्र 53.लौंग 54.शिरस छाल 55.सरसों 56.साल गोंद 57.सुगंधबाला 58.सर्ज 59.सुपारी 60.हल्दी 61.हरीतकी 62.गोघृत 63.गुड़ या शक्कर या शहद।