ऐतिहासिक धरोहर और सूख चुकी ढंड झील को दोबारा जीवित करने के लिए टीम गठित अवैध कब्जा करने वालों की बड़ी धड़कने ।

बदायूं।सहसवान की अपनी एक अलग ऐतिहासिक पहचान है अगर सहसवान की भौगोलिक स्थिति का अंदाजा लगाया जाए तो यह सहज ही अंदाजा हो जाता है कि भौगोलिक दृष्टि से बदायूं जिले में सहसवान की क्या भूमिका है शायद यही कारण है कि बदायूं ज़िले के केंद्र में होने के कारण ही यह कस्बा ब्रिटिश काल में जिला मुख्यालय था, लार्ड विल्सन की कोठी को जिसे डाक बंगला कहा जाता है के साथ साथ और भी बहुत सी इमारतें इसकी गवाह हैं। सहसवान की ऐतिहासिक धरोहरों की अगर बात करें तो राजा सहस्त्रबाहु का टीला, जल के सात स्रोतों से बना हुआ सरसोता जिसके बारे में मान्यता है कि राजा सहस्त्रबाहु और भगवान परशुराम के बीच एक युद्ध हुआ था और जब भगवान परशुराम ने राजा सहस्त्रबाहु पर अपने फरसे से सात वार किये थे जो भूमि के जिस हिस्से पर लगे वहां से जल के सात स्रोत बन गए। वहां से जारी स्रोतों से जो जल बहता था वो सरसोते से राजा सहस्त्रबाहु के टीले से होता हुआ कई किलोमीटर दूर जाकर महावा नदी में गिरता था। उसी कई किलोमीटर जल बहने से दंड झील का निर्माण हुआ था जो कभी सहसवान की शान हुआ करती थी। सरसोते से लेकर राजा सहस्त्रबाहु के टीले के बराबर बहती दंड झील और उसमें खिलने वाले हज़ारों कमल के फूल, उसके आसपास की ज़मीन पर फूलों की खेती एक अलग ही संसार की अनुभूति देती थी और उन फूलों से बनने वाला इत्र पूरी दुनिया में निर्यात किया जाता था और उस समय सहसवान को इत्र की नगरी कहा जाता था। यही दंड झील कभी सहसवान की आर्थिक धुरी थी जो आज समय के साथ सूखी पड़ी है। सहसवान के कई लोगों का मानना है कि हम दुर्भाग्यशाली हैं जो अपनी धरोहरों को नहीं सहेज पाए। दंड झील के सूखने के बाद जो भूमि बची थी, वो बेहद उपजाऊ थी तो लोगों ने इसपर खेती बाड़ी शुरू कर दी। हाजी नूरुद्दीन जब नगर पालिका के अध्यक्ष थे उस समय सहसवान की एक धरोहर सहस्त्रबाहु के टीला का सौंदर्यीकरण किया गया जो आज भी पर्यटकों का सबसे पसंदीदा स्थल है उस समय टीले पर पक्की सीढ़िया बनाकर उसपर सुंदर लाइटें लगाई गईं थीं जगह जगह लोगों के बैठने के लिए बेंचें बनाई गईं। वहां आने वाले पर्यटकों की सुरक्षा के लिए बीच मे गोल घेरे में लोहे की ग्रिल लगाईं गईं। दर्जनों सीढ़ियां चढ़कर जब आप इस टीले पर पहुंचते हो तो यहां से जो नज़ारा आपके सामने होता है वो मंत्रमुग्ध कर देने वाला होता है और आपको किसी हिल स्टेशन पर होने का अकल्पनीय अहसास कराता है। उस समय दंड झील को पुनर्जीवित करने की बात भी की गई थी और कई सबमर्सिबल करके उसमें पानी भरने का प्रस्ताव था लेकिन 2017 के निकाय चुनाव में हाजी नूरूद्दीन के चुनाव हारने के बाद समय बीतता गया और ये योजनाऐं और प्रस्ताव ठंडे बस्ते में डाल दिये गए।
एआईएमआईएम नेता और समाजसेवी शरीफुद्दीन क़ुरैशी ने अब दोबारा इस मुद्दे को उठाया है और लगातार अधिकारियों को झील को पुनर्जीवित करने के लिए प्रार्थनापत्र दे रहे हैं। अब जाकर उनकी मेहनत रंग लाई है और झील की नपत शुरू की गई है और टीम का गठन भी किया गया है लेकिन लगता नहीं कि ये इतना आसान है। झील के बीच में कई ऐसे भूमि नंबर हैं जिनपर लोग अपना मालिकाना हक़ जता रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह जमीन उनके बाप दादाओं की है जबकि कुछ का कहना है कि यह जमीन उनके पूर्वजों को अंग्रेजों द्वारा दान की गई थी।
अब एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि जब ब्रिटिश हुकूमत थी और देश अंग्रेजों के अधीन था तो उस समय जमीनों का मालिक कोई और कैसे हो सकता है?
और रही बात ज़मीनें दान देने की तो दूसरा बड़ा प्रश्न है कि जिस ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था क्या वो अंग्रेज इतने मूर्ख थे जो झील के अंदर की जमीने दान कर रहे थे जबकि दान करने को पूरा हिंदुस्तान उनके पास था। यह कुछ बड़े प्रश्न है इसके बारे में अधिकारियों को सोचना है कि कहीं कागजों में कोई गड़बड़ करके तो लोगों को मालिक नहीं बना दिया गया अगर सारे कागज़ात खंगाले जाएं तो सच बाहर आ सकता है।